आर आई पी 'लाला जी'

आर आई पी लालाजी

ख़ुदा की ताक़त बड़ी निराली, उससे भी निराली दुनिया।
ख़ुदा अच्छे दिन दिखाए, की एक था समझदार बनिया।

तो ऐसा हुआ की एक बार किसी कस्बे में एक बनिया आया, जिसने अपनी जी जान लगाकर एक छोटी सी परचूने की दुकान खोली। धीरे धीरे दुकान चल निकली और बनिये को वहाँ और आस-पास के कस्बे के लोग 'लाला जी' के नाम से बुलाने लगे। 
'लाला जी' को 'लाला जी' बुलाया जाना काफी अच्छा लगता था। अब जब लाला जी और उनकी दुकान मशहूर हुई, तो उनके लिये जैसे हमेशा होते हैं वैसे ही कुछ अच्छा बोलने वाले और कुछ बुरा वोलने वाले लोग भी पैदा हो गये। जो भी हो, लाला जी ने कभी किसी की एक ना सुनी, जो जी में आया सो किया। इतना, कि उन्हीं की दुकान पर काम करने वाले कुछ लड़कों ने उनपर इल्ज़ाम लगाया कि काम तो सारा वो करते हैं पर लाला जी सारी वाह वाही लूट कर ले जाते हैं। और ये भी कि लाला जी उन लोगों से जानवरों की तरह काम करवाते हैं, ना समय से घर जाने देते हैं, और कभी कुछ शिकायत करो तो गाली गलौज भी करते हैं। जितने मुँह उतनी बातें थीं, पर एक बात उनके दुश्मन भी कहते थे, "ये साला लाला धँधा भला ही कैसा करता हो, पर अपनी दुकान का नाम कहाँ और किस तरह फैलाना है, इसमें कोई लाला का हाथ भी नहीं पकड़ सकता।"

दुकान खूब चली, और चली तो ऐसी चली कि लाला जी कि दुकान का माल खरीदना समाज में रसूखदारों की निशानी माना गया। नाम और धन, दोनों ही लाला जी पर ऐसे बरस रहे थे, जैसे बरसात में सरकारी स्कूलों की छतें। लाला जी अपनी दुकान को अपनी जान और परिवार से भी ज्यादा मानते थे, शायद तभी उन्होंने अपने तीनों में से किसी एक भी औलाद को अपनी दुकान पर बैठने लायक नहीं समझा।

दिन बीतते गये, और एक दिन लाला जी को पता चला कि उन्हें कैंसर है। पैसा तो उनके पास भतेरा था, पर समय अब बिल्कुल भी नहीं बचा था। बड़े से बड़ा डॉक्टर और अच्छे से अच्छा अस्पताल भी उन्हें ढाँढस ना बँधा पाया और एक दिन 'लाला जी' के चौथे की खबर आस पास के सारे कस्बों के अखबारों में थी। होती भी क्यूं ना, लाला जी अपने जीते जीते जी सारे अखबारों को खूब अच्छा पैसा देकर अपनी दुकान के लम्बे चौड़े विज्ञापन निकलवाते थे।

पर जो होना था हुआ, अखबारों में चौथे की खबर निकली और वहाँ लाला की दुकान में मीटिंग बुलायी गयी। वसीयत में दुकान के माल का एक नग भी किसी घरवाले के नाम ना था। खरबूजा जो कटा, दुकान पर काम करने वाले लड़कों में बँटा। एक ने बोला, दुकान में सिर्फ परचून का माल रखने से काम नहीं चलेगा। दूसरे ने उसकी बात का समर्थन करा और कहा, "सही कहा, और ऊपर से ये आजकल के नये लौण्डे अपनी छोटी छोटी दुकानों से हमारे काफी ग्राहक खा जाते हैं।" उनमें से सबसे बड़े ने जो कि लाला जी का सबसे भरोसे का आदमी था, ने उनको समझाने की कोशिश की कि दुकान भले ही अब उन सब की है, पर इसको लाला जी जैसा रखते और चलाते थे वैसे ही रखना और चलाना चाहिये। पर उस बेचारे की किसी ने ना सुनी।

दुकान के शटर आधे गिराकर अँदर ही एक मतदान हुआ, और उसी के आधार पर सारे नये काम सबने आपस में बँदरों के जैसे बाँट लिये। पर साथ ही ये भी तय हुआ कि लाला जी का नाम दुकान के साथ हमेशा जुड़ा रहेगा, आखिर ये दुकान है तो उन्हीं की।

आज अखबारों में लाला जी कि दुकान के नये विज्ञापन छपे हैं। लाला जी के समय तेल तौलने वाले मनोहर ने दुकान में ही सिम कार्ड और मोबाईल फोन रिचार्ज करने का एक छोटा सा काउण्टर लगा लिया है। हमेशा आटे में फबे रहने वाले राकेश ने दुकान के साबुन वाले हिस्से में थोड़ी सी जगह बनाकर उसमें लेडीज़ के मेकअप का सामान भी रखा है। अब लाला जी की दुकान में हर रँग की लिपस्टिक और नेलपॉलिश बिका करेंगी। कुछ पुराने ग्राहक ये सब जानकर उन नये लड़कों को कोस रहे हैं, पर कई नये लोग लड़कों के इस कदम को सराह भी रहे हैं। अब बाज़ार में टिके रहना है तो ये सब तो करना ही पड़ता है।

और रही बात मेरी, तो मैं लाला जी की दुकान से ना तो पहले ही कुछ खरीदता था, और ना ही आगे भी कुछ खरीदने का मेरा इरादा है। संशोधन:  2013 में मैंने भी लालाजी की दुकान से एक लैपटॉप खरीद ही लिया।

पता नहीं लाला जी (जहाँ भी वो हों) को ये सब देखकर कैसा लग रहा होगा। पर मेरे विचार से लाला जी की दुकान के साथ जो आज हो रहा है, वो कभी ना कभी तो होना ही था। अब इसे आप चाहें तो लाला जी के कर्म कह लीजिये, या दुनिया का रिवाज, जो भी ठीक लगे।

संशोधन:  २०१३ के बाद से मैं लाला जी की दुकान से और भी काफ़ी माल ले चुका हूँ।


आर आई पी लाला जी !


अब कई नये आकर्षक रंगों में उपलब्ध