कंकवाड़ी किला: किसी परिकथा का खोया अंश



एक ऊंची नीची घाटी के बीच में एक छोटी पहाड़ी, और उसपर बना एक किला। दूर से देखने पर ऐसा लगता है मानो अभी एक राक्षस किले की पहाड़ी के पीछे ने निकल कर इसकी पहरेदारी करना शुरु कर देगा।


सरिस्का बाघ परिसर के भीतरी भाग में एक मोती छिपा है, जिसका नाम है कंकवाड़ी।  इंसानों की बसावट और माया से दूर ये जगह मानो किसी कहानी की किताब से निकली हुई प्रतीत होती है। चारों ओर पहाड़ियों की ऊंची दीवारें और बीच में एक मनभावन घाटी। जहां तक देखो हरी घास का रंग जैसे ज़मीन और पहाड़ दोनों को अपने रंग में एक करे डालता है।

कभी ये एक भरा पूरा गांव था, पर आज ये गांव वीरान होने की कगार पर है। पर इसकी वीरानी के पीछे कोई काला जादू या राक्षस नहीं है; क्योंकि सभी कहानियां लुभावनी नहीं होतीं।


इतिहास

इस गांव के बसने के सबसे पुराने साक्ष्य मुगलकाल के समय से मिलते हैं। सवाई राजा जयसिंह जी जो मुगल बादशाह शाहजहां के 'मिर्जा राज़ा' थे ने इस किले का निर्माण कार्य शुरु करवाया। इस गांव को किसी किले या महल की ज़रूरत नहीं थी, परंतु तब ये इलाका भयंकर सूखे की चपेट में आया हुआ था। खेती बाड़ी करने में कोई फ़ायदा नहीं था, इसीलिये जयसिंह जी ने कंकवाड़ी तथा टहला, इन दो गांवों में किलों का निर्माण कार्य शुरु करवाया। इससे यहां के लोगों को काम मिलता और उसके बदले में वो सरकारी खजाने से मेहनताना पाते। पुराने समय में किसी सूखाग्रस्त क्षेत्र की अर्थव्यवस्था चलायमान रखने का ये एक कारगर तरीका था। जहां आम लोग दिन में मज़दूरी करके अपनी कमर तुड़ाते, बड़े घर के लोग शर्म और धूप से बचने के लिये रात के अंधेरे में काम करते।

कुछ सालों में किलों पर काम खत्म हो गया, और सूखा भी। टहला के किले में भले ही कुछ समय के लिये बसावट रही, पर कंकवाड़ी में रहने कभी कोई अपनी मर्ज़ी से नहीं आया। राजा जयसिंह इस किले को बनवा कर भूल चुके थे, पर शायद वो भी ये नहीं जानते थे कि किस्मत ने उनसे इस किले को ऐसे ही नहीं बनवाया था।

सवाई राजा जयसिंह (बांए), दारा शुकोह अपनी पत्नी के साथ (दांए)

मुगल साम्राज्य हमेशा ही अफ़गानिस्तान पर धावा बोलता रहा था। उनके बाद इस भारतीय परंपरा का निर्वाह महाराज अजीत सिंह और अंग्रेज़ों ने ज़ारी रखा। पर उस समय ये भार शाहजहां के नाज़ुक कंधों पर था। शाहजहां ने अपने लाड़ले बेटे दारा शुकोह तथा जयसिंह को एक दल में रखा। इन्होंने साथ साथ अफ़गानिस्तान तथा भारत में कई जगहों पर मुगल साम्राज्य के परचम के नीचे साथ साथ दुश्मनों से लोहा लिया।

दारा शुकोह एक नरमदिल और नेक इंसान था, जो धर्म के पाखण्ड और प्रपंचों से दूर था। जहां उसकी ये विशेषताएं उसे एक महान भावी राजा बनाती थीं, वहीं वह एक बर्बाद जनरल भी था, जिसकी बनायी युद्ध रणनीतियां एक तरह से बेअसर होती थीं। जब राजा जयसिंह जी ने 'राजकुमार' को एक दो बार उसकी गलतियों के बारे में बताया, दारा शुकोह ने इस राजपूती राज़ा को बेइज्ज़त करना अपना धर्म बना लिया।  दारा शुकोह कोई ऐसा मौका अपने हाथ से नहीं जाने देता था, जिसमें वो जयसिंह को नीचा ना दिखा सके। जयसिंह जानते थे कि दारा आगे चलकर हिंदुस्तान का बादशाह बन सकता है, और इसीलिये वो अपना मुंह बंद करके काम पर ध्यान देते थे।

पर फिर औरंगजेब के मन में बादशाह बनने का ख्याल अाया, और उसके बाद दारा शुकोह का क्या हुआ ये सब जानते हैं।

दारा को लड़ाई में चित करने के बाद औरंगजेब उसे जनता की नज़र और ख्‍याल से दूर रखना चाहता था। तब उसे किसी ने एक किले के बारे में बताया जिसके बारे में बहुत ही कम लोग जानते थे। औरंगजेब को बात जंच गयी, और दारा शुकोह को कंकवाड़ी के किले में नज़रबंद करके रख दिया गया।

राजा जयसिंह को अनायास ही उनका बदला मिल गया था। वो सारा निरादर जिसे वो खून का घूंट पीकर बर्दाश्त करते थे, आख़िरकार रंग ले ही आया। उनका वीराने में बनवाया किला बेकार नहीं गया।

दारा शुकोह के ज़ख्म भरने तक वो इस किले में रहा, जिसके बाद दिल्ली ले जाकर उसे और उसके परिवार को मौत के घाट उतार दिया गया था।

कंकवाड़ी: किला और घाटी

मुगलों के बाद अंग्रेज़ों को ये किला काफ़ी पसंद रहा, उनके कई वृत्तांतों में इसका ज़िक्र है। पर स्वाधिनता मिलने के बाद अाज़ाद हिंदुस्तान इस किले के बारे में भूल ही गया।


वर्तमान

सन् 2009 के आसपास रिज़ोर्ट माफ़िया ने इस किले को एक होटल में परिवर्तित करने की नाकामयाब कोशिश करी। उनके इरादों को कुछ हिस्टोरिक ऐक्टिविस्ट्स ने पूरा नहीं होने दिया, पर तब तक किले की असली चित्रकारियां और कई चीज़ें अनाधिकृत पुनरुद्धार की भेंट चढ़ चुके थे।

देखा जाये तो ये बिना वजह के बना किला आज तक केवल जेल के ही रूप में प्रयोग किया गया है। प्रस्तुत हैं इस खूबसूरत जेल के कुछ चित्र:

किले से घाटी का विहंगम दृश्य

कंकवाड़ी की छत से दिखती घाटी व तालाब







सरिस्का बाघ परिसर को निषेधित क्षेत्र घोषित करने के बाद ही यहां बसे इंसानों को कहीं ओर ले जाने की प्रक्रिया शुरु हो गयी। दशकों पहले यहां बीस-इक्कीस घर होते थे, जो 2013 तक 10-15 रह गये। और जब मैं 15 अगस्त 2016 को यहां गया तो तब तक केवल 3 घर बचे थे, और उनका विस्थापन भी पाइपलाइन में था।






कंकवाड़ी और उसका किला अभी भी उतने ही खूबसूरत और अनछुए हैं जितने पहले थे।





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