सिनेमा प्रेमी क्रांतिकारी

Bhagat Singh (4th from right standing) National College, Lahore

सिनेमा का उसे बेहद शौक था, जिस भी शहर-प्रान्त में वो होता, सबसे पहले यही पता करता कि वहां के सिनेमाघरों में कौन कौन सी फ़िल्में लगी हुयी हैं। पैसे खुद की जेब में कभी होते नहीं थे, पर फ़िल्मी चस्का इतना जबरदस्त था कि यार दोस्तों की जेबों में पड़े पैसे को दूर से ही सूंघ लेता।


एक शाम अपने दोस्त के कमरे पर वो जल्दबाज़ी में पहुंचा। दोस्त का नाम था जयदेव गुप्त और उसने उस शाम सिनेमा दिखाने का वायदा किया था। अंदर घुसने पर जो उसने देखा कि जयदेव बिस्तर में औंधे मुंह पड़ा हुआ है, गुस्से में कसकर एक धौल जयदेव की कमर पर लगायी, "साले सिनेमा का वायदा किया था। भूल गया क्या?"

जयदेव कराहते हुए पलटा, "जाहिल अादमी इधर तबियत खराब है, और तुझे सिनेमा की लगी है।"

अचानक से ही उस गरम दिमाग जाट का चेहरा नर्मी से भर गया, "क्या हुआ है तुझे?" उसने चिंता से पूछा।

"डिस्पेप्सिया।" जयदेव ने धीमे से जवाब दिया।

अंग्रेज़ी उसकी ज़्यादा अच्छी थी नहीं, और ऊपर से ऐसा बड़ा और भारी शब्द - डिस्पेप्सिया
वो जयदेव को बिस्तर में करवट बदलते देख चुपचाप मेज के पास की कुर्सी पर बैठ गया। उस शाम सिनेमा का खयाल उसने अपने दिमाग से लगभग निकाल ही दिया था। और तभी उसकी नज़र मेज़ पर रखी dictionary पर गयी।

अंग्रेज़ी में भले ही हाथ तंग था, पर लगन की उसमें कोई कमी नहीं थी। उसके सारे दोस्त जानते थे कि कैसे वो अकेले में शब्दकोश लेकर बांचता था, और भले लगने वाले शब्दों को एक कागज़ पर उतार कर अपनी जेब में रखे घूमता। बीच बीच में खाली समय मिलने पर उन्हीं शब्दों को रटता रहता था। पर उस शाम वो भयानक शब्द डिस्पेप्सिया उसके दिमाग में घूम रहा था।

सो उसने शब्दकोश खोला और इसका अर्थ ढूंढना शुरु किया।

थोड़ी देर बाद उसने शब्दकोश को बंद किया, मेज पर रखा, चुपचाप उठा, और जयदेव के बिस्तर को पकड़ कर उलट दिया। जयदेव औंधे मुंह ज़मीन पर गिरा, "अबे क्या कर रहा है साले जाट!" वो चीखा।

पर उसके हाथ केवल बिस्तर तक ही नहीं रुके। उसने जयदेव की कमीज़ पकड़ कर उसकी जेब टटोलनी शुरु कर दी।

उसका दिमाग फिर से गरम हो चुका था, "बदमाश! खा खाकर बदहज़मी कर ली है। काहिल पड़ा सो रहा है, और ऊपर से मेरा सिनेमा छुड़वायेगा? डिस्पेप्सिया बोलकर डरा और रहा है।"

जैसे ही एक और लात जयदेव की कमर पर पड़ी उसने समझाया कि उसका सिनेमा जाने का मन नहीं है। ऊपर से उसके पास सिनेमा के लिये पैसे भी नहीं थे।

"तुझे बदहज़मी है, इसीलिये तू आज शाम खाना नहीं खायेगा। शाम के खाने के पैसे मुझे दे, मैं अकेला ही सिनेमा देख आऊँगा। तुझे नहीं आना हो तो मत आ!"

उसके बाद जो वो जयदेव के कमरे से निकला तो सिनेमा के पैसे उसकी जेब में थे।

यही अंग्रेज़ी में कमज़ोर भगत सिंह अपनी लगन और मेहनत के बल पर एक दिन अंग्रेज़ी के महारथी बन गये। ना सिर्फ़ उन्होंने जेल में कई पत्र अंग्रेज़ी में लिखे, बल्की अदालतों में न्यायाधीशों को उन्हीं की भाषा में जवाब दिये। क्रांतिकारी, शहीद ए आज़म भगत सिंह को तो हम सभी जानते हैं, लेकिन उस भगत नाम के लड़के को, जो 24 साल की उम्र में ही देश के लिए फाँसी पर झूल गया। उसे एक इंसान के रूप में जानना भी हमारा फ़र्ज़ बनता है।

उनकी 109वीं  वर्षगांठ पर शहीदे आज़म को कोटि कोटि नमन।





टिप्पणियाँ