माँ ने बिछुए पहनना छोड़ दिया



आज माँ के पैर दबाते हुए मेरा हाथ उनकी पैरों की उंगलियों में पहुँचा, तो उंगलियों को खाली पाकर काफी अजीब लगा। पहले उनके पैरों की उंगलियों में 'बिछुए' होते थे। ये सुहागन स्त्रियों के सुहाग की एक और निशानी हैं, जैसी कि हमारे हिन्दू समाज में कई सारी होती हैं।

उनकी उंगलियों को खाली देखकर याद आया कि कैसे एक दिन मैंने उनसे पैरों की मालिश करते वक्त कहा था, "माँ, ये बिछुए पहनना छोड़ दो, एक तो तुम्हें तकलीफ देते हैं और दूसरा मालिश करते वक्त मुझे भी परेशानी होती है।"

ये सुनकर मेरी माँ बिदक पड़ीं क्योंकि उनके हिसाब से मैंने एक और बेवकूफी भरी बात कही थी। उनका कहना था, "पागल है तू। अभी तो तेरे पापा ज़िन्दा हैं, ये तो मुझे पहन कर ही रखने पड़ेंगे। इन्हें उतार नहीं सकती।"


-- "पर तुम्हें इनसे कितनी तकलीफ होती है।", मैंने बदले में कहा।

तो माँ ने भी कहा, "तकलीफ होती है तो क्या.. तेरे पापा के लिये है। उनके लिये तो सब मँज़ूर है।"

मेरे माँ बाप में वो दो पागल प्रेमियों वाला प्यार नहीं था, पर हाँ दोनों एक दूसरे से प्यार करते थे, ख्याल रखते थे। दोनों लड़ते भी जबरदस्त थे, पर एक वक्त पर कोई एक ही चिल्लाता था, एक चीखता था तो दूसरा चुपचाप उसकी बात सुनता था। अब मुझे ये समझ में नहीं आता कि एक औरत, जिसकी शादी 20 साल की उम्र में उससे 7 साल बड़े लड़के से करा दी गयी हो और जबकि दोनों ने एक दूसरे का पहले कभी नाम भी नहीं सुना हो (बस घरवालों ने एक बार आपस में मिलवाया और बात तय हो गयी) उस आदमी के लिये इतनी तकलीफें सहने को कैसे तैयार हो गयी? वो भी तब जबकि दोनों एक दूसरे से प्यार नहीं करते थे, पहले से कोई प्रेम भी नहीं था। बस शादी हुई और दोनों को एक साथ जिन्दगी गुज़ारने को बोल दिया गया।

मेरे पापा मेरी माँ को प्यार ज़रूर करते थे, पर मेरी याद्दाश्त के अनुसार मेरी माँ ने उनसे कभी 'I LOVE YOU!' या किसी और तरह से ये नहीं सुना कि पापा उनसे कितना प्यार करते थे या शायद करते भी थे या नहीं, बल्कि कभी कभी जब मैं माँ से पूछता था कि क्या उन्हें लगता है कि पापा उनसे प्यार करते हैं, तो कहती थीं, "क्यों नहीं करते ?  बहुत करते हैं, पर अगर ना भी करते हों तो भी मुझे फर्क नहीं पड़ता।"। मुझे तो ये सुनकर ऐसा लगता था कि जैसे सूरज बड़जात्या की किसी फिल्म की लाइन हो।

मुझे वो वक्त भी याद है जब पापा का ऐक्सिडेंट हुआ था और वो करीब करीब 1 साल के लिये बिस्तर पर चले गये थे। तब मेरी माँ ने ही घर का खर्चा चलाया था और हमारे साथ साथ पापा की भी पूरी देखभाल अकेले ही की थी। और कैसे एक बार जब घर में अम्मा और चाची से माँ का झगड़ा हुआ था तो पापा ने झुंझला कर माँ को मारा था। मैं उस वक्त कोई 7 या 8 साल का था और काफी डर गया था। तो जब माँ बिस्तर पर लेटी हुई थी तो मैं उनके पास जा कर बैठ गया। माँ के हाथ और चेहरा सूजा हुआ था। उन्होंने मुझसे कहा, "देख, तेरे पापा ने मुझे मारा।" उनकी आँखों में उस वक्त आँसू थे और उस वक्त मेरा दिल पापा के लिये गुस्से और नफरत से भर कर फटा जा रहा था। और जब 2-3 दिन बाद मैंने माँ से बातों ही बातों मे कहा कि मैं बड़ा होने पर पापा को उनकी इस हरकत के लिये मारूँगा और आपकी पिटाई का बदला लूँगा, तब वो औरत कितने गुस्से में आ गयी थी। मुझे साफ कहा गया था कि ऐसी बातें कभी भूल कर भी अपने जेहन में ना लाऊँ। बल्कि हमेशा अपने बाप की इज्जत करूँ।

उसके बाद जब थोड़ा बड़ा हुआ और चीजों को समझने लगा (वैसे तो कई लोगों के हिसाब से मैं अब भी कुछ नहीं समझता हूं और निपट 'बेवक़ूफ़' हूँ) तब वही अम्मा, चाची और बुआओं के माँ-पापा से होते झगड़े को देखकर समझ आया कि पापा का हाथ मम्मी पर किन परिस्थितियों में उठा होगा और पापा के लिये खोई इज्जत मेरे दिल में ना सिरफ वापस आ चुकी थी बल्की कई गुना बढ़ भी गयी थी।

हमारी उस बड़े से घर में एक अलग दुनिया थी, जिसमें सब एक दूसरे को प्यार करते थे। एक दूसरे को समझते थे और इज्जत भी करते थे। और गुस्सा आने पर खूब चीख-चिल्ला कर लड़ते भी थे। पर वही एक बात मुझे कभी कभी परेशान करती है, कि दो अजनबी  जिन्होंने पहले कभी एक दूसरे के बारे में सुना भी नहीं था  कभी एक दूसरे को देखा भी नहीं था एक दूसरे को जानना तो दूर एक शहर में भी नहीं थे उनके बीच इतना प्यार कैसे हो सकता है?

क्या ये सिर्फ एक समझौता था?

बिल्कुल नहीं। मैंने उन दोनों का एक दूसरे के लिये प्यार देखा है और वो समझौता नहीं था। मुझे तो ये अब भी समझ में नहीं आता है।

और पापा की मौत के2 दिन बाद जब मैं माँ के पैरों की मालिश कर रहा था, तो उन्होंने धीरे से मुस्कुराते हुए कहा, "तुझे मेरे बिछुए पसँद नहीं थे ना, ले उतार दिये मैंने।"

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