बरसात, छत और बुकमार्क


हिन्दुस्तान में बारिश के साथ जो सबसे पहली चीज़ ज़्यादातर लोगों के ज़हन में आती है, वो है टपकती छत। मैं शर्त लगाकर ये बात कह सकता हूं कि टपकती छतों में समय बिताने वाले लोग, ना टपकने वाली छतों में पले लोगों से ज़्यादा अच्छी Crisis Management कर सकते हैं। तो मतलब ये है कि हमारी भी छत बरसात के पानी से शायद रिश्वत लेकर उसे हमारे घर में घुसने देती थीं।


बचपन में जब भी बारिश होती थी, हमें छत पर जाने की मनाही हो जाती थी। वजह ये नहीं थी कि हमारे माँ बाप को डर था कि हम बीमार हो जायेंगे या गिर गिराकर हड्डी वड्डी तोड़ लेंगे, बल्कि ये थी कि हमारे घर की छतें हमारी पैदायश से काफी पुरानी थीं और उनपर ज़्यादा धमाचौकड़ी का मतलब उनको नीचे आने की दावत देना था।

दीमक लगी लकड़ियों पर टिकी ईंटों के ऊपर मसाला लगाकर बनायी उस छत पर भागने से नीचे पूरे घर में २-३ रिक्टर स्केल का भूकंप आ जाता था। जब भी हम बचपन की मस्ती में ये भूळ जाते थे, नीचे से माँ या पापा की चीख हमें इस बात की याद दिला देती थी। 



बरसात में हमें खेलने की कभी कोई रोक टोक नहीं लगी, पर आसमान से गिरते पानी का जो मज़ा छत पर आता है, वो चारदिवारी से घिरे आँगन में कहां। पर हमारी किस्मत बनाने वाले ने हमारी इस ख्वाहिश का भी जुगाड़ कर रखा था।

बरसात का अंदेशा आते ही मेरे पापा एक परात में मसाला और खुरपी लेकर छत पर पहुंच जाते थे। और मैं प्लास्टिक की थैलियां और कैंची लेकर उनके साथ रहता था। जहां भी पापा को छत में छेद होने का शक-शुबा होता, वहां वे प्लास्टिक का एक चौकोर टुकड़ा काट कर लगाते और उसके ऊपर मसाला भर देते। इससे मुझे ये सीखने को मिला कि प्लास्टिक और कहां कहां काम आ सकता है। पर इस भराई से पहले पापा और मैं मिलकर छत साफ़ करते थे। हम दोनों एक एक सींक वाली झाड़ू लेकर पूरी छत चमका देते थे। और बारिश आने के बाद एक बार झाड़ू और लगती थी, ताकि छत से चिपकी सारी गंदगी पानी अपने साथ ले जाये। साफ़ छत में दरारें ढूंढना आसान होता था।

पर ये सारी चाक चौबंदी बारिश आने के बाद भी नाकाम हो जाती, क्यों कि असली छेदों का पता तो बरसात के आने पर ही लगता था। तो इतने में मैं और पापा तुरंत छत पर जाकर उन नये नवेले छेदों के ऊपर बरसाती बिछा देते। शायद इसीलिये किसी भी नयी चीज़ के ऊपर चढ़ी प्लास्टिक मुझे पसंद नहीं, क्यों कि वो मुझे छेदी छतों की याद दिलाता है। तो हर बारिश की शुरुआत में मैं और पापा अपने घर की छत पर छेदों और दरारों में पानी जाने से रोकने की कवायद कर रहे होते थे। पर ये पानी भी अपनी जात का पक्का था, हम एक दिन दो छेद बंद करते थे, तो अगले दिन ३ नये छेद बना देता था। बस इसी खेल में मेरी बरसातें बीतती थी और मुझे छत पर पापा के साथ समय बिताने को मिलता था।

पर एक दिन जब हम एक ज़ोर की बरसात में इक्का दुक्का छेदों को पाटने के बाद नीचे उतर रहे थे, एक ज़ोर की आवाज के साथ हमारे बैडरूम की आधी से जय़ादा छत, रसोई की छत का थोड़ा हिस्सा अपने साथ लेती हुई नीचे गिर पड़ी।

मुझे याद है पापा तुरंत छत से नीचे कूदे और अंदर देखने गये कि कहीं छत किसी के ऊपर ना गिरी हो। उस समय सब दूसरे कमरे में थे, इसीलिये छत केवल बिस्तर पर गिरी थी। पर अब पापा को ये समझ नहीं आ रहा था कि किया क्या जाये। सारी बरसाती कई चौकोर टुकड़ों में दूसरी छत पार जहां तहां पानी रोक रही थी। माँ ने पापा को देखा और वो तुरंत आधी बची रसोई में घुस गयीं। पापा चिल्लाते हुए उनके पीछे गये और उन्हें बाहर निकलने को बोला, पर माँ ने उन्हें शांत रहने को कहा और खुद सबके लिये चाय बनाने लगीं। मैं पागलों की तरह ये सब देख रहा था।

पापा कुछ देर तक तो माँ को ऐसे ही देखते रहे, पर फिर खुद भी रसोई में जाकर माँ के साथ चाय बनाने लगे। चाय बनकर तैयार हुयी और हम सब ने गीले मलबे और धड़ाधड़ बरसते पानी के साथ बैठकर उसका मज़ा लिया।

उस दिन हम सब दूसरे कमरे में दरी बिछा कर सोये। अगले दिन मलबा साफ़ हुआ और छत की मरम्मत का काम भी।

आज लगभग २० साल बाद उस घर की सारी छतें और दीवारें अकेलेपन औेर अनदेखी से गिरती की कग़ार पर लगती हैं, पर छत का वो नया हिस्सा मेरी ज़िंदगी की Timeline में एक Bookmark जैसा टिका है।


2020 अपडेट: वह घर अब बिक कर दूसरे मालिक के सुपुर्द हो चुका है जिसने उसका अधिकतर हिस्सा तोड़कर अपने माँ माफ़िक़ बना लिया है। तो ये क़िस्सा अब उस फटे पन्ने की तरह है, जिसकी किताब अब ग़ायब हो चुकी है।