जूनियर, मोनालीसा, टाल, और पापा


ये वो किस्सा है जब मेरे स्कूल के जूनियर ने मुझे पहली बार मोना लीसा से मिलाया।

जब आपके किसी पड़ोसी के घर में शादी हो, तो आपको अपनी हाजिरी देना अनिवार्य होता है। और जब घरवालों का जाने का मन नहीं होता और घर में एक 9वीं क्लास में पढ़ने वाला लड़का हो तो, पूरे घर का राजदूत उसे बनाकर भेजने से अच्छा प्लान क्या हो सकता है? सो मेरे घरवालों ने भी यही किया, मुझे तैयार होने को कहा, और मेरे तैयार होते ही मुझे एक 101 रुपये का लिफ़ाफ़ा पकड़ाया और घर से रवाना कर दिया।


मैं शादी में पहूँचा, दुल्हन के पापाजी को लिफ़ाफ़ा पकड़ाया और खाने के लिये प्लेट उठा ली।

मैं खाना अपनी प्लेट में सजा ही रहा था कि पीछे से किसी ने मुझे बुलाया। पीछे मुड़कर देखा तो मेरे स्कूल का एक दोस्त जो कि मुझसे जूनियर था, खड़ा था। ना तो अब मुझे उस लड़के का नाम है और ना ही ये कि वो 8वीं क्लास में था या 7वीं क्लास में, बस इतना याद है कि उस बोरिंग शादी में टाइमपास करने के लिये कोई मिल गया था। तो हम दोनों ने खाना खाया, इधर उधर थोड़ी सी लड़कियाँ देखीं और फिर बोर होने के बाद धर्मशाला से बाहर सड़क पर आ गये। रात ज्यादा हो चुकी थी तो सड़क पर कोई था भी नहीं। सुनसान सड़क पर बात करते हुए मैं और मेरा जूनियर चले जा रहे थे कि तभी उसने पूछा, "बियर तो पीते होगे?"

मैंने ज़िंदगी में कभी बियर नहीं पी थी। सुट्टा, गुटखा, दारू... इन सबसे मैं अलग था। मेरी लतें अलग थीं; वीडियो गेम, कॉमिक्स और शहर के सुनसान कोनों में आवारागर्दी करना मेरे शौक थे। इसीलिये जब उसने मुझसे बीयर के बारे में पूछा तो मैं चौंक गया। वैसे भी वो मेरा जूनियर था, तो मैंने उम्मीद भी नहीं की थी कि वो मुझसे ऐसा कुछ पूछेगा। पर अब पूछ लिया तो बताना भी पड़ेगा।

मैं अचानक ठिठका और बिना उसकी तरफ़ देखे बोला, "हाँ !"
बिना किसी की तरफ़ देखे, झूठ ज़्यादा आसानी से बोला जा सकता है, सो मैंने उसकी तरफ़ ना देखना ही मुनासिब समझा। मेरी बात सुनकर वो मुस्कुराया और हम दोनों सड़क पर आगे चल दिये। उसने मेरे कँधे पर हाथ रखा और बड़े प्यार और इज्ज़त से कहा, "सामने नुक्कड़ पर ठेका है, चलो।"

हम दोनों ठेके के सामने पहुँच कर रुक गये। उसने जेब से 100 का नोट निकाल कर मुझे दिया और बोला, "एक मोनालीसा ले आओ।" इतना कह कर वो पास ही के पनवाड़ी की तरफ़ दुड़की हो लिया।
मोनालीसा के बारे में अभी तक मुझे यही पता था कि लियोनार्डो दा विंची ने बनायी थी, पर साली उसके नाम से बीयर भी आती है, ये मुझे आज ही पता लगा। बेचारे लियो को कितना बुरा लगेगा अगर उसे पता लगेगा कि उसकी प्यारी अइटम मोनालीसा के नाम से हिन्दुस्तानियों एक महज 100 रुपये की बीयर बना दी है। वाकई में काफ़ी बुरी बात है।

यही सोचता हुआ मैं ठेके पर पहुँचा। ठेके की एक बात मुझे समझ में नहीं आती कि वहाँ जेल के जैसी लोहे की सलाखें क्यों होती हैं? यहाँ दिल्ली आने के बाद मैंने ऐसे ठेके कम ही देखे वर्ना यू.पी. में तो सारे ठेके ऐसे ही दिखते हैं जैसे कि आप शराब लेने नहीं बल्कि जेल में किसी से मिलने आये हैं। खैर, वापस टॉपिक पर आया जाये, तो भैया ठेके वाले भाई साहब ने मुझे देखा और एक नज़र मुझ पर डालने के बाद वो वापस से अपने छोटे से टीवी में लग गया। मैंने 100 का नोट अँदर सरकाया और बोला, "अँकल एक मोनालीसा देना।" मैं उसे ये नहीं दिखाना चाहता था कि मैं पहली बार बीयर खरीद रहा हूँ।

वो टीवी देखते हुए उठा, रैक में से एक बोतल निकाली और मेरे सामने रख दी। 100 का नोट उठाया और गल्ले में डाल दिया, मैंने भी बोतल उठायी और वापस जाने के लिये पीछे मुड़ गया।
"अबे ओये!" उसकी गँदी से आवाज़ ने मुझे रोक लिया। मैं पीछे मुड़ा तो उसके हाथ में कुछ रुपये थे।

"अबे 40 रुपये की है। पहली बार ले रहा है क्या?" उसने गँदी सी शक्ल बनाते हुए कहा।

40 रुपये ??? लो लियो भाई की तो और कच्ची हो गयी। उनकी मोनालीसा तो खुरजा के ठेकों पर 40 रुपये में बिकती है। पियो और पीने के बाद फोड़ दो, वर्ना जमा करके रखनी हो तो कई सारी इकठ्ठी होने के बाद कबाड़ी को बेच दो। एक बीयर की बोतल के डेढ़ रुपये मिलते हैं कबाड़ी से। घोर कलियुग !!!

तो यही हिसाब किताब करता हुआ मैं जूनियर के पास पहुँचा। वो सिगरेट के साथ तैयार था। "तो गुरू अब पीने की जगह ढूँढनी है बस।", उसने मुझे गुरू बुलाया था। गुरू हमारे यहाँ इज्ज़त देने वाला शब्द था, अब तो भाई के लिये जगह का जुगाड़ करना बनता था। मैंने थोड़ा सा हिसाब लगाया तो मुझे याद आया कि मेरे पापा के एक मित्र का टाल यहीं पास में ही था। मैंने उसे उस टाल के बारे में बताया तो वो भी खुश हो गया, "गुरू तुम सीनियर लोगों के साथ होने का यही फ़ायदा होता है। तुम लोग जुगाड़ू होते हो। चलो टाल में चल के पियेंगे।"। बस फिर हम दोनों टाल की तरफ़ चल दिये।

टाल के मेन गेट में से अँदर घुसने के बाद हम जब मेरे पिता जी के दोस्त की टाल के पास पहुँचे तो देखा कि उनका चौकीदार वहीं खाट पर सोया हुआ था। मेरा जूनियर खाट के बाजू में से चुपचाप निकलने के बाद टाल के अँदर पहुँच गया। मैंने भी वैसा ही किया और कुछ पल बाद हम दोनों लकड़ियों के बड़े बड़े ढेरों के बीच में बैठे हुए थे। अब एक समस्या और थी, हम दोनों ही अपने अच्छे कपड़ों में थे तो कहीं भी बैठने से कपड़ों के खराब होने का डर था। मेरे जूनियर ने आस पास देखा और उसकी नजर लकड़ी काटने वाली मशीन के प्लेटफ़ॉर्म पर गयी। वो मेरा हाथ पकड़ कर उस मशीन की तरफ़ ले गया और मुझे बोतल पकड़ा कर खुद मशीने के प्लेटफ़ॉर्म पर चढ़ गया। मैंने बोतल उसे पकड़ायी और खुद भी ऊपर चढ़ गया। अब हम ज़मीन से लगभग 6-7 फुट ऊपर एक conveyer belt पर बैठे थे जिसका की एक छोर लकड़ियों के ढेर की तरफ. जाता था और दूसरा छोर एक बड़ी सी गोल आरी के नीचे ने निकलता हुआ सप्लाई वाली जगह पर जाता था। हम दोनों ने पालथी मारी और मेरे जूनियर ने सिगरेट, माचिस और बीयर की बोतल को हम दोनों के बीच करीने से रख दिया।

अब परेशानी ये थी कि वो शायद सोच रहा था कि मैं शुरुआत करूँगा पर मैंने इससे पहले ना तो कभी सुट्टा मारा था और ना ही कभी बीयर पी थी, पर मुझे दिखाना ऐसा पड़ रहा था कि मुझे सब आता है। अब आखिर जूनियर के आगे अपना रौब कायम करने के लिये इतना करना तो बनता था। भगवान की दुआ से उसने खुद ही सिगरेट निकाली और जलाई, उसके बाद उसने दूसरी सिगरेट उस पहली सिगरेट से जलाई और मुझे पकड़ाई, "लो गुरू, श्रीगणेश करो।" एक तो उसने फिर से गुरू बोला और उसके उपर से गणेश जी का नाम लिया, तो मना करना तो बनता ही नहीं था। मैंने उसके हाथ से सिगरेट ली और उसे अपनी दोनों उँगलियों के बीच पकड़ा। पापा को हमेशा से सिगरेट पीते हुए देखता था, और हमेशा से पापा का वो अदाओं से उसे सुलगाना, पकड़ना, कश मारना और उस धुँए को मुँह और नाक से बाहर निकालने के बाद सिगरेट की राख को झाड़ना मुझे कितना पसँद आता था मैं बता नहीं सकता। अब मेरे हाथ में 'मेरी अपनी' सिगरेट थी, ये पापा की नहीं थी और मुझे कोई मना करने वाला भी नहीं था। एक बार घर पर पापा की सिगरेट जलाने के बाद मैंने उसे अपनी उँगलियों के बीच से पकड़ कर मुँह से लगाया ही था कि तभी पापा ने पकड़ लिया था। पापा ने सिगरेट मेरे हाथ से लेकर मुझे कहा था, "अभी तेरा टाइम नहीं आया है, जब मैं चला जाऊँ तब पीना।"
पर आज मेरा टाईम आ गया था। एक अजीब सी खुशी हो रही थी। उसी खुशी के आलम में मैंने सामने देखा तो मेरा जूनियर मेरी तरफ़ देखकर मुस्कुरा रहा था। उसकी आँखों में एक अपनेपन की चमक थी और मेरी उँगलियों के बीच सिगरेट थी जो कि मेरी अपनी थी। मैं मुस्कुराया और सिगरेट को मुँह में लेकर एक कश मारा। मैंने फ़िल्मों में देखा था कि जब हीरो बचपन में पहली बार सिगरेट पीता है तो पहला कश लेकर काफ़ी खाँसता है, पर मैं सावधान था, और मेरे साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। ये साले फ़िल्म वाले होते ही बेवकूफ़ हैं।

सिगरेट में ऐसा कुछ मज़ा नहीं आ रहा था पर उसकी एक अलग ही खुशी और रोमाँच था। मैं सिगरेट के मज़े ले ही रहा था कि मेरे जूनियर ने बीयर खोली और मेरी तरफ़ बढ़ा दी, "लो गुरू, तुम शुरू करो।"
क्या लड़का था; सुट्टा-बीयर, सब कुछ पीता था। साला यहाँ तो सुपारी तक नहीं खाने का शौक था, पर चलो इस भाई की वजह से अब दोस्तों के बीच कहने की बात बन गयी थी कि भई हमनें भी सुट्टा और बीयर कर रखी हैं। अब बताऊँगा उस साले अँकित को, बड़ी बकवास करता है अपने बुआ के लड़कों के बारे में, ले बेटा अब तो मैं भी सुट्टा और बीयर लगा चुका हूँ।

मैंने उसके हाथ से बोतल ली और मुँह के पास ले गया, पर एक सवाल ने बोतल को मेरे मुँह पर ही रोक दिया। "बेटा दिशूलाल! बीयर तो तुम पी लोगे, पर घर पहुँच कर सोना तो घरवालों के साथ ही है। अगर बदबू आ गयी तो इतने जूते पड़ेंगे की शकल पहचान में नहीं आयेगी अगले दिन।" जूनियर ये देख रहा था, "गुरु, कोई समस्या?", उसने पूछा‌। मैंने बोतल हटायी और पूछा, "अबे यार बदबू आयेगी इसे पीने के बाद।"

वो मुस्कुराया और अपनी जेब में हाथ डालकर बोला, "अरे गुरू उसकी भी व्यवस्था भी है।" ये कह कर उसने जेब से 6-7 पान मसाले के पाउच निकाले। चलो ये भी ठीक था, घर पर बोल देंगे कि खाने के बाद पान खाया था इसीलिये इतने महक रहे हैं। बस अब कोई टेंशन नहीं थी। मैंने सिगरेट का एक और कश मारा और उसके बाद बोतल मुँह से लगाकर एक बार में जितनी पी सकता था पी गया। वो दिन है और आज का दिन है, मुझे बीयर के स्वाद से ही नफ़रत हो गयी है। बोतल तो मैंने उसके साथ खत्म करी और ज़िंदगी में उसके बाद भी केवल 2 बार पी, पर ये सिर्फ उसके स्वाद के नापसंद होने का ही नतीज़ा है कि मुझे बीयर की लत नहीं लगी।

इस सब के शुरु होने के थोड़ी देर बाद ही, वो गर्मी की रात अचानक ठण्डी लगने लगी। टाल में से आने वाली छिली हुई लकड़ियों की बदबू, खुशबू लगने लगी और सब कुछ अच्छा लगने लगा। हम दोनों मोनालीसा और कुछ सिगरेट की तीलियों का भोग लगाने के बाद उसी मशीन पर लेट गये। चाँद इतना बड़ा जिंदगी में पहले कभी नज़र नहीं आया था। सब कुछ कितना अच्छा था!

थोड़ी देर बाद मेरे जूनियर ने अपनी घड़ी देखी और मुझे उठाया, "गुरू सवा 11 हो रहे हैं, चलो वापस चलते हैं।"। अगर वो ना बोलता तो मैं तो शायद वहीं सो जाता पर उसके साथ मैं भी उठा और हम मशीन से नीचे उतर गये। अगर आप में से किसी ने वीडियो गेम 'मून मारिओ' खेला हो तो उसमें मारिओ उड़ता हुआ चलता है, क्योंकि उस गेम में गुरुत्वाकर्षण की शक्ती नहीं होती; ठीक वही इस वक्त मेरे साथ हो रहा था। मेरा हर कदम ऐसा लग रहा था जैसे कि मैं चाँद पर चल रहा हूँ। माननीय नील्म आर्मस्ट्रॉग को चाँद पर चलते वक्त कितनी खुशी हुई होगी ये मैं उस वक्त समझ सकता था।

खैर हम दोनों टाल से बाहर निकले और हमने आपस में विदा ली। मैं वैसे ही उड़ता उड़ता सीधा घर पहुँच गया। घर पर रात को क्या हुआ ये तो मुझे याद नहीं, पर सुबह सिर में हथौड़े पड़ रहे थे। मँ ने मेरी हालत देखकर पापा को बुलाया, पापा ने मेरा मुआयना किया और माँ से बोले, "इसके लिये एक बिना दूध की चाय बना कर ला।"। माँ ने एक आज्ञाकारी  पत्नी की तरह बिना कुछ पूछे उनकी बात पूरी करी और मेरे सामने चाय हाज़िर थी। माँ को कॉलेज जाने के लिये देर हो रही थी सो वो तैयार होकर निकल गयीं। भाई भी जल्दी से तैयार होकर स्कूल निकल गये सो अब बचे मैं और पापा। पिता जी ने मुझे थोड़ी देर आराम करने दिया और फिर मेरे पास आकर बैठ गये।

"शादी कहाँ पर थी?" पापा ने आराम से पूछा। "मुरारी लाल की धर्मशाला में।", मेरे सिर में अभी भी दर्द था।

"कुछ किया था रात को ?", पापा मेरी तरफ़ घूर रहे थे। मैं थोड़ा सा सकपकाया, पर था तो वकील की ही औलाद, "नहीं, बस खाना खाया और घर आ गया।"
"अचछा?", पिता जी का वो 'अच्छा' बड़ा ही अजीब था। वो मेरे से कुछ निकलवाना चाहते थे ये तो मैं समझ गया था पर मैंने एक बात हमेशा से सीखी थी, कि अगर किसी बात के लिये बोल दिया कि नहीं करा या नहीं पता तो बस उसी पर जमे रहो। सो मैंने दर्द तेज़ होने की थोड़ी सी ऐक्टिंग करी और बात पलट दी। इत्तेफाक से तभी फोन की घँटी बज पड़ी, बड़े सही टाईम पर फोन आया था।

पापा ने फोन उठाया, उनकी बातों से में समझ गया कि दूसरी तरफ देवेन्द्र अँकल थे, पिता जी के वही दोस्त जिनकी टाल पर हम रात को गुल खिला कर आये थे। पापा ने उनसे बात करी और थोड़ी देर बात बात करते हुए मेरी तरफ देखा और बोले, "अच्छा? तो इसमें कौनसी बड़ी बात हो गयी? एक-आध बार तो चलता है। वैसे भी जब वो कह रहा है तो शायद रात को कोई और आ गया होगा। टाल पर कोई ताला थोड़े ही होता है। जाने दे बात को।" थोड़ी देर बाद बात करने के बात पापा ने फोन रख दिया और नहाने चले गये।

समझ तो मैं गया था कि क्या बात हो रही थी। पिता जी इतना तो समझ ही गये थे कि दे‌वेन्द्र अँकल की टाल मुरारी लाल की धर्मशाला के सामने ही है, और ये भी कि वहीं नुक्कड़ पर एक दारू का ठेका भी है।

पर मेरे पिता जी की एक खास बात ये थी कि वो डाँटते कम थे और ज़लील ज़्यादा करते थे। आखिर वकील जो थे।

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