कँसल का स्कूटर और मेरा बदला


नोट:- ये कहानी काल्पनिक है और उसका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या वस्तु से कोई संबंध नहीं है। 
और खासकर कि कँसल या उसके लॉण्डों से। साले कमीने हरामखोर साण्ड कहीं के !!!


"एक धक्का और मामला खराब!"


इस किस्से को पढ़ने से पहले आप को कुछ चीज़ें पहले समझनी ज़रूरी हैं । इन्हें जानने से आपको मेरी इस कहानी का असली दर्द/मज़ा समझ आएगा । तो फटाफट समझाए देता हूँ ;



1. AKP की विधवाएं: ये असली विधवाएं नहीं हैं बल्कि ये AKP यानी Arya Kanya Paathshala में पढनेवाली लडकियों के लिए रखा गया नाम है । AKP की विधवाएं AKP में पढने वाली लड़कियों को बुलाया जाता था.. था क्या अभी भी उनका यही नाम है । AKP खुर्जा का एक only for girls college है, जिसके बारे में हमारे खुर्जा में लड़के कहते हैं, "जिस साइज़ की चाहो, उस साइज़ की लडकियां आपको AKP से मिल जाएँगी ।" इसकी वजह है की AKP ने 8वीं से लेकर Post Graduation तक लड़कियों को पढ़ाने का ठेका ले रखा है । हालांकि ये सारी लडकियां पढ़ लिखकर कोई तीर नहीं मारती, बल्कि शादी करके अपने ससुराल में चौका बर्तन करके हमारे पुरुष प्रधान समाज की परंपरा को आगे बढ़ाने का निर्वाह करती हैं । और उन्हें विधवा बुलाने की वजह है AKP का ड्रेस कोड; सफ़ेद सलवार कमीज़ और उसपर सफ़ेद दुपट्टा. तो ये तो हुई पहली बात और अब दूसरी बात: 

2. अभिषेक शर्मा की Information: अगर पाकिस्तान का प्राइम मिनिस्टर इंडिया के प्राइम मिनिस्टर से बोले, "बाउजी हम अब आपके यहाँ कल से घुसपैठिये और आतंकवादी नहीं भेजेंगे.." तो एक बार को उसकी इस बात का भरोसा किया जा सकता पर मेरे इस काबिल दोस्त की किसी भी इन्फोर्मेशन का भरोसा करना यानी अपने पैर को खुद दीवार में देकर मारना। ऐसा नहीं है की वो जान बूझकर ऐसा करता है, बल्कि बात ये है की १० में से ८ दफा उसे खुद ही नहीं पता की उसकी खबर सही है या नहीं । "लड़का नेक है, पर कमी एक है" वाली कहावत मेरे इस दोस्त के लिए एक दम सही है. जैसे बांकेलाल जिसका बुरा चाहता है उसका भला हो जाता है उसी प्रकार हमारे लौण्डे पर भी कुछ उल्टा श्राप है । बेचारा जिसका भला चाहता है, उसी का बुरा हो जाता है । 

और मेरी खुश/बदकिस्मती यही थी की वो उन दिनों सबसे ज्यादा भला मेरा ही चाहता था ।
 
... तो अब आप दोनों बातें समझ चुके हैं और इसीलिये अब किस्सा शुरु करते हैं।


बात उन दिनों की है जब हम ११वी क्लास में थे ।
 
हम अपने घर पर बैठे अपने कपडे धो रहे थे और अगले दिन हमारा Physics का practical था। 


अब ये पूछो की हमें कैसे पता की हमारा practical अगले दिन था ? 
- ये इन्फोर्मेशन हमें अभिषेक शर्मा ने दी थी.. और क्या कहें पापा कसम किस confidence के साथ दी थी !
 

तो भैया उनके confidence की दुहाई लेकर अपने कपड़ो पर 555 की बट्टी रगड़ रहे थे की तभी हमारे पास हमारे मित्र कौशल कुमार मीना का फ़ोन आया !

उन्होंने कहा; "बेटा यहाँ तुम्हारा practical चालू होने वाला है और तुम गायब हो ?? कहाँ पर हो बे ??"
हमने पूछा, "कौनसा practical बे ??"
 
जवाब आया, "Physics का practical है साले !!! शुरू हो रहा है, जहां भी है पहली ट्रेन पकड़ कर आ जा।"

ये खबर सुनकर वो 555 की बट्टी हमारे कपड़ो के साथ साथ हमारे दिमाग पर भी फिर गयी। तुरंत आनन् फानन में कपडे पहने और अपने पड़ोसी की साईकिल उठा कर निकल लिए। फ़ोन, पेन, ID Card, wallet और practical की file कुछ भी नहीं लिया। पापा बोले की तुम कॉलेज पहुँचो हम सब कुछ लेकर आते हैं !
 

मैं अपने पड़ोसी की साईकिल में दनादन पैडल दिये जा रहा था। रास्ते में Video Game Parlour से सिंदर भैया ने आवाज़ लगायी, "ओये रिशू ! तेरे favorite game का लेटैश्ट पार्ट आ गया है। अभी कोई नहीं है, टैश्टिंग कर ले।"
 

पापा कसम मन तो ऐसा करा कि फेंको इस मुई साईकिल को यहीं केबल वाले के ओफिस के बगल में और घुस जाओ फ्री का Video Game खेलने, पर तभी पिताजी के जूते का भी ख्याल आया और पैडल दबते रहे। रस्तोगी अँकल की दोनों दुकानों को पार करके हम कँसल डॉक्टर (असल में वो साला कम्पाउण्डर था जो डॉक्टर की शागिर्दी में नाम का डॉक्टर बन गया था) की गली में मुड़े। अब गली के अँत तक ही पहुँचे थे कि तभी सामने से AKP की विधवाओं का झुण्ड आता दिखायी दिया।


अब हमें अपने साईकिल चलाने की कला का जौहर दिखाना था। क्योंकि अगर किसी लड़की को हल्की सी भी टक्कर लग जाये तो उसके हाथ ऐसा issue लग जाता है जैसे रामलीला ग्राउण्ड के काँड के बाद BJP को मिल गया था, बैठे बिठाये! 

पर जब ये AKP की विधवाएँ छूट कर निकलती हैं तो पूरी सड़क को ऐसे घेर लेती हैं जैसे कि गाय-बकरियों का झुण्ड किसी सड़क को घेर लेता है। पर परेशानी ये थी कि मेरी साईकिल स्पीड में थी और मुझे अभी अभी पता चला कि उसमें ब्रेक्स भी नहीं थे। जैसे तैसे लड़कियों से बचाते-बचूते मैं साईकिल को गली के आखिर तक खींच ले गया। और वहीं गली के अँत में उस कँसल का घर था। सो जैसे ही मैं कँसल के घर के सामने पहुँचा तभी एक विधवा के पीछे से अचानक एक और विधवा निकली और मुझे देखकर 50's की black and white फ़िल्मों की हीरोइन की तरह चिल्लायी ! 


ज़्यादा video game खेलने का फायदा ये होता कि फिर बाकी सारी दुनिया भी video game लगने लगती है। सो उसको बचाने के चक्कर में मैंने साईकिल का हैंडल तेज़ी से left को काटा और वहीं खड़े कँसल के बजाज Priya (3 gear वाला scooter) में घुसने लगा। और तभी मैंने बड़ी तेजी से साईकिल का हैंडल अपनी दाँयी ओर काटा, पर तब तक मेरी साईकिल के हैंडल का बाँया हिस्सा और मेरा बाँया घुटना उस स्कूटर में घुस चुका था। और मैं जैसे ही साईकिल का balance बना कर आगे निकला, मेरी नज़र पीछे गयी और मैंने देखा कि स्कूटर आगे-पीछे झोंटे खा रहा था। मैं पीछे यही देखते हुए आगे चला जा रहा था कि तभी स्कूटर झोंटे लेकर अपने स्टैण्ड से नीचे उतरा और ... धड़ाम !!

मैं अपने पीछे ये सब देख ही रहा था कि तभी सामने से एक और चीख सुनायी दी। सामने नज़र गयी तो देखा एक और विधवा चीख रही थी क्योंकि मेरी साईकिल उसमें घुसे जा रही थी। पर मैंने वहाँ भी अपने video game खेलने की क्षमता का फायदा उठाया और साईकिल को फिर से काटा। विधवा तो बच गयी पर इस बार मेरी साईकिल का बैलेंस पूरी तरह बिगड़ चुका था और मैं भी उसी स्कूटर की तरह धड़ाम हो गया।
 

मैं गिर कर पूरी तरह फैला भी नहीं था कि तभी मैं अपने आप उठकर खड़ा हो गया। पता पड़ा किसी ने मेरा कॉलर पकड़ कर मुझे ऊपर उठाया था। गर्दन पीछे घुमायी तो कँसल मोटा दिखा और उसके हाथ में मेरा कॉलर था। वो मुझे घसीटते हुए अपने गिरे हुए स्कूटर की तरफ ले जाने लगा। 


- "क्यों बे ! स्कूटर गिरा कर भाग रहा था?"
 
- "नहीं अँकल जी। जल्दी में था, गलती से गिर गया।"

इतने में कँसल के दोनों लॉण्डे घर से बाहर निकल आये और मुझे घेर लिया। बाप की तरह दोनों लॉण्डे भी साले साण्ड थे; और मैं तब एक दम दुबला पतला सींकिया पहलवान था, तीनों को देख कर ही मेरी हवा टाइट हो गयी।
 

मेरे ऊपर दोषारोपण ज़ारी था और तमाशा देखने के लिये पब्लिक का मज़मा लग चुका था।

इतने में कँसल का छोटा लॉण्डा बोला; 
- "पापा मुझे तो ये वही लगता है जो रोज़ दोपहर को हमारी डोरबेल बजा कर भाग जाता है।"
 
- "नहीं अँकल जी, मैंने आपकी डोरबेल कभी नहीं बजायी।", मैंने अपना केस सामने रखा
- "अबे तू हमें सिखायेगा !", कँसल का बड़ा लॉण्डा किसी नेता की तरह चीखा और उसने मेरे गाल पर एक झापड़ रसीद किया।
 

था तो साला साण्ड पर साले का हाथ गद्दे जैसा नरम था। छोटू (मेरी छोटी चचेरी बहन)का हाथ उससे तेज था। एक बार को तो कुछ समझ नहीं आया और झापड़ पड़ने के बाद मैंने पलट कर देखा तो कई सारी विधवाएं तमाशा देख रही थीं। उनमें से वो भी थी जिससे बचाने के चक्कर में ये सारी गड़बड़ हुयी थी। पर साले तीनों बाप-बेटे मुझे घेर कर खड़े हुए थे।


- "अँकल जी! Practical देने जा रहा था। लेट हो रहा था। जल्दबाजी में गिर गया .. आपका स्कूटर।"
 
- "Practical देने जा रहा था? साले ! ना तो ID Card है, ना file है। अबे तेरे पास तो पैन भी नहीं दिख रहा मुझे।", point तो साले का valid था। और ऊपर से मैंने कपड़े भी बहुत अच्छे पहन रखे थे (SARCASM!)। 

मैं ये सब सोच ही रहा था (और कर भी कर क्या सकता था) कि तभी एक और झापड़ पड़ा। ये वाला ज़रा जोर का था, क्योंकि ये उन दोनों के बाप ने मारा था।

"हरामज़ादे ! पहले हरामखोरी करता है और ऊपर से बहाने बनाता है। इसको तो आज पुलिस में दिये बिना नहीं छोड़ेंगे।", बस कँसल का इतना कहना ही था कि कि उस के दोनों लौण्डे मुझ पर चढ़ पड़े। 


अब मैं कँसल ऐन्ड सँस से अकेला जूझ रहा था। यकीन मानिये, literally गुत्थमगुत्था हो रही थी। मैं अकेला सींकिया पहलवान और मेरे ऊपर 3 साँड।


जैसे तैसे कुछ लोगों ने बीच बचाव कराने की कोशिश की पर कँसल साला मेरा कॉलर छोड़ ही नहीं रहा था। इसी बीच बीच बचाव करा रहे किसी भलेमानस ने पूछा; "बेटा तुम्हारे पापा का नाम क्या है?"

एक तो उस हालात में कोई मुझसे 'तुम' कह कर बात कर रहा था और दूसरे किसी ने पापा का नाम पूछा, इन दोनों ही बातों ने मुझे तुरँत जवाब देने के लिये मज़बूर किया और मैंने तपाक से कहा; 
"ऐन. के. शर्मा" 

- "वो वकील साहब ?? पण्डित जी?" उसी भलेमानस ने पूछा। मैंने हाँ में सर हिलाया।

उस भले मानस ने तुरँत अपनी हैरत भरी आँखो से कँसल की तरफ देखा जिसने अभी भी मेरा कॉलर पकड़ रखा था। कँसल ने पूछा, "तू नरेन्द्र वकील का लड़का है?"
 

- "हाँ।"
 
- "उमेश भूत चाचा है तेरा ?" कँसल ने अगला सवाल छोड़ा।
- "हाँ। छोटे चाचा हैं वो मेरे।" मैंने अपने हाथ से अपनी गर्दन खुजाने की कोशिश कर रहा था।

जैसे ही मैंने इन दोनों सवालों के जवाब दिये, कँसल की पकड़ मेरे कॉलर पर से अचानक ही खत्म हो गयी। अपने दोनों नौनिहालों को साथ लिया और घर में घुसते हुए बोला;
 "जा जा, practical दे अपना।" 

उसके बाद वो तमाशे वाली पब्लिक ऐसे छटी जैसे टीम इण्डिया के हारते हुए मैच के आखिरी ओवर के दौरान भीड़ गायब हो जाती है। कॉलर लगभग उधड़ कर शर्ट से बाहर आ चुका था। 


तभी एक छोटा सा लॉण्डा मेरी साईकिल लेकर मेरे पास आया और खींसें निपोरता हुआ बोला, "भैया आपकी साईकिल।" 
मन तो ऐसा किया कि अभी एक रखकर दूँ इसके कान के नीचे पर practical के लिये लेट हो रहा था, सो साईकिल पर बैठा और कॉलेज की तरफ चल दिया। 


साईकिल का हैण्डल देढ़ा हो चुका था और वो खड़ा हुआ स्कूटर जैसे मुझे चिढ़ा रहा था।

खैर कोई नहीं, हम उसी टेढ़े हैण्डल वाली साईकिल पर कॉलेज पहुँचे। Physics वाले पटेल सर के सामने मेरी थोड़ी बहुत इज्ज़त थी, तो बिना admission card और file के practical करने बैठ गया। बाजू वाले से पैन तो ले लिया पर लिखने को कुछ था ही नहीं। ऐसा नहींं था कि मेरा मूड खराब था, बल्कि साला practical में कुछ आता ही नहीं था। इसीलिये खाली बैठे बैठे चपरासी को अपनी दु:खभरी दास्तान सुनायी।


थोड़ी देर बाद viva-voce के लिये मुझे बुलाया गया तो उन्होंने भी वही सवाल पूछे जो मुझे नहीं आते थे। 
रूम से बाहर निकला तो पापा और भैया खड़े थे। चपरासी ने पहले ही breaking news वहाँ break कर दी थी तो मुझे कुछ बताने की जरूरत नहीं थी। मैंने file अँदर रूम में जमा करायी और रोनी सी सूरत बना कर पापा-भैया के सामने खड़ा हो गया। 

- "एक तो साले ये जोकरों जैसे कपड़े पहनकर घूमोगे तो हर चलता फिरता तुम पर हाथ छोड़ देगा।" भाई बोले।
 
- "कितनी बार कहा है कि इँसानों जैसे कपड़े पहन लिया कर। पर साला तुम्हें तो आदमी की जौन में ही नहीं रहना है।" पिताजी भी बोले।

पर मैं भी रुँआसी शक्ल बना कर उनके सामने खड़ा रहा। 

थोड़ी देर तक दोनों ने लेक्चर सुनाया और अँत में वो बोले जो मैं सुनना चाहता था;
"तू आगे आगे चल, उसके घर पहुँच और तीनों बाप बेटों को बाहर बुला। हम पीछे पीछे आ रहे हैं।"


पिताजी ने दिल खुश कर दिया पापा कसम! 

मैं छाती चौड़ी करके घायल के सनी देओल वाला expression चेहरे पर लिये कँसल के घर पहुँचा। 

साथ ही पीछे पीछे देखता भी रहा कि पापा-भैया कितनी दूरी पर हैं। 

कँसल के पड़ोसियों को जैसे कि कहीं से खबर मिल गयी थी कि मैं 'बदला लेने वापस आने वाला था', साले सब के सब छत पर पहले से ही जमा थे। 


मैंने एक नज़र उनपर डालने के बाद फिर दरवाजा पीटा।
नोट: ऐसे वक्त पर डोरबेल नहीं बजाते.. impression नहीं बनता है। हमेशा दरवाजा पीटना चाहिये। 

कँसल का बड़ा लड़का दिखायी दिया। मैंने उँगली के इशारे से उसे बुलाया।
उमरा‌व जान जैसी लचक के साथ वो चलता हुआ आया और उस बेवकूफ ने दरवाजे की कुण्डी भी खोल दी!

- "भैया! घर पर अभी कोई नहीं है।" वो बिना कुछ पूछे बोला।
 

'भैया ??'

अभी थोड़ी देर पहले मैं चोर, हरामजादा, साला, बैल बजा कर भागने वाला, स्कूटर गिरा देने वाला और 'इसको तो आज पुलिस में दिये बिना नहीं छोड़ेंगे' था और अब अचाबक मैं भैया बन गया??
मैं इसी उधेड़बुन में था कि तभी भैया-पापा मुझे गली में प्रवेश करते दिखायी दिये, यही वक्त था शुरू हो जाने का। 

दरवाजा उस बेवकूफ ने पहले ही खोल दिया था। मैंने दरवाजे पर 'योको-गेरी' मारी (ये कराटे में साइड किक को कहते हैं, आप लोग नहीं समझोगे) और मेरे कराटे टीचर गुलरेज़ खान उर्फ गुल्लू भाई (अल्लाह उन्हें बरक़त दे) का नाम लेते हुए मैंने पूरी ताकत से कँसल के लॉण्डे को पीछे धकेला। अब वो जमीन पर था और मैं उसके घर के अँदर।

मैं सींकिया पहलवान उस साण्ड के सामने खड़ा था और वो हिन्दी फिल्म की किसी ऐसी हीरोइन की तरह काँप रहा था जिसका कि बलात्कार होने वाला हो। इतनी देर में पापा-भैया घर में घुसे। पापा ने भाई को इशारा किया और भाई ने उसे कॉलर से पकड़ कर घसीटा, दीवार के सहारे खड़ा कर दिया।

 अब एक बात जो मेरे बड़े भाई में खास है वो ये कि वो जब भी किसी को 'किसी और' के लिये मारने वाले होते हैं, तो वो उस 'किसी और' के सामने victim को खड़ा करके मारने से पहले एक बार confirm करते हैं।

सो भैया ने उसे दीवार के सहारे खड़ा करके मेरी तरफ़ देखा और अपनी punchline मारी;
 "यही था ?"  

मेरे हामी में सर हिलाते ही भाई का हाथ हवा में लहराया और एक 'भाट' की एक जोरदार आवाज कँसल के घर की गैलरी गूँज उठी। कँसल के लौण्डे का गाल किसी ताज़ा कढ़ाही से उतरी टिक्की जैसा लाल था और बाजू वाले कमरे में से किसी के सिसकने की सी आवाज आयी। मैंनें झाँक कर देखने की कोशिश की तो दो स्त्रीलिंग जैसी चीजें दिखायी दीं। मैं और झाँकना चाह रहा था कि तभी पापा की गुर्राहट से मेरा ध्यान वापस बिज़नेस की तरफ गया।
 

- "बुला अपने बाप को बाहर। बहुत गुण्डागर्दी फैला रखी है सालों तुमने।" पापा जी का गुस्सा top gear लगा चुका था।
 
- "पापा घर पर नहीं हैं अँकल जी।" बेचारा लड़का बोला (सही बताऊं तो अब मुझे उस पर दया आने लगी थी)।

इस पर पापा ने एक हाथ से उसका जबड़ा अपनी उँगलियों के बीच दबाया और दूसरे हाथ से उसके बाल खींचते हुए बोले;
 

"अपने बाप को बोलियो कि 'नरेन्दर वकील' आया था। शाम तक घर आकर माफी माँग ले वरना कल सुबह तुम तीनों बाप बेटों की परेड तुम्हारी दुकान से ही निकालूँगा।" 


मेरे दिमाग का सिनेमाहॉल तालियों और सीटियों से गूँज उठा।
मैं आज भी पिताजी के उस धमकाने वाले ishtyle की नकल करने की कोशिश करता हूँ, पर बाप बाप होता है। 

पापा ने उसको छोड़ा और बाहर निकल गये। भाई ने एक गुस्से वाली नज़र उस पर डाली और मुझे चलने का इशारा करके खुद भी बाहर निकल गये। मैं भी end में उस बेचारे को छोड़ कर बाहर निकला। छतों पर जमा पब्लिक को देख कर ऐसा लगा जैसे कि वो सब मेरा ही अभिवादन करने बैठे थे। 


फूला हुआ सीना लिये मैं अपनी साईकिल लेने कॉलेज भाग गया।

भैया-पापा कँसल की दुकान पर भी गये पर वहाँ उन्हें कँसल का 'कम्पाउण्डर' ही मिला। खैर मामले ने थोड़ा सा तूल पकड़ा और अँत में वही हुआ जो हर मामले का होता हैं। किसी बिचौलिये ने एक मीटिंग बुलायी, कँसल ने उसमें पापा से माफी माँगी और बात रफा दफा हो गयी। पर मैं आज भी कँसल के घर और दुकान के सामने से चौड़ा होकर निकता हूँ।
 

एक दिन मेरे एक मित्र (जिनकी दुकान कँसल की दुकान से सटी हुयी है) से पता चला कि कँसल का छोटा लौण्डा (जो उस वक्त गायब हो गया था) किसी दिन मुझे देखने के बाद उनसे बोल रहा था, 
"मैंने इस लड़के में मार लगायी थी।"

इस पर मेरे मित्र के पापा, जो कि सुन रहे थे हँसे और बोले;
 
"अबे इसका बाप था तो उसने छोड़ दिया तुम्हें। अगर इसका छोटा चाचा होता तो तुम्हारी दुकान-घर और तुम सबमें आग लगा देता।"

कँसल का लौण्डा उसके बाद कुछ नहीं बोला क्योंकि वो जानता था कि ये सच है। वो तो कँसल ऐन्ड सँस का नसीब अच्छा था कि उन दिनों मेरे चाचा (स्व.) उमेश भूत उन दिनों अपने कुछ murder cases के चक्कर में जिले से तड़ीपार थे ,वरना उसका और उसके बाप का क्या होता, ये तो मेरे चाचा ही बता सकते थे।

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