सेंसरशिप: एक सभ्य समाज का हथियार


"सेंसरशिप किसी समाज के आत्मविश्वास की कमी का प्रतिबिंब होता है।" जॉर्ज बर्नार्ड शॉ

8 जून 1972 का वो दिन था जिस दिन वियतनाम के एक गांव 'तरांग बांग' में एक बम आकर गिरा। यूं तो उन दिनों वियतनाम में बम रोज़ ही गिर रहे थे, पर ये बम एक इतिहास बनाने वाला था।


जिस बम की बात हो रही है, उसे नेपाम बम कहा जाता है। उस समय में ये एक अत्याधुनिक और कारगर हथियार था। नेपाम पैट्रोलियम तथा जैल का एक मिश्रण होता है और इसकी खोज 1942 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में की गयी थी। दूसरे विश्वयुद्ध से लेकर वियतनाम युद्ध तक अमरीकी सेनाओं ने जमकर इसको हथियार की तरह इस्तेमाल किया। पर उस दिन ये बम अमरीकी नहीं बल्कि एक दक्षिणी वियतनामी पाइलट ने 'गलती से' गांव छोड़कर भागते हुए लोगों के ऊपर गिरा दिया।

'फ़ान थी किम फ़ुक' नाम की एक बच्ची जो अपने परिवार के साथ गांव से बाहर भाग रही थी, इस कहानी के केन्द्र में आ गिरी, या यूं कहिये कि ऊपरवाले ने उस बच्ची को ये दर्द देने के लिये चुना था। नेपाम बम गिरने से बच्ची के दो परिवार वालों की मौत मौके पर ही हो गयी, और खुद उसके कपड़ों में आग लग गयी। इसपर उस नन्ही जान ने अपने कपड़े फ़ाड़ कर फ़ेंक दिये लेकिन तब तक नेपाम उसके शरीर को जला चुका था। चीखती चिल्लाती फ़ान सड़क पर भागी जा रही थी, जब एक वियतनामी फ़ोटोग्राफ़्रर 'निक उत' ने उसका वो फ़ोटो खींचा जिसने उसको पुलित्ज़र प्राईज़ दिलवा दिया।

14 महीनों तक अस्पताल में भर्ती रहने तथा 20 से ज़्यादा ऑपरेशनों के बाद फ़ान किसी तरह बच सकी। अब वो अमरीका में रहती हैं, और उनके तब के ज़ख़्म उन्हें आज भी उस दिन की याद दिलाते हैं।


अब आते हैं सन 2016 में, जब फ़ेसबुक पूरी दुनिया पर हावी है, और लोगों द्वारा अपनी बात रखने का एक सबसे बड़ा ज़रिया बन चुका है। ऐसे में जब नोर्वे की प्रधान मंत्री एरना सोलबर्ग ने यह ऐताहिसक फ़ोटो अपनी फ़ेसबुक वॉल पर शेयर करी, 40 मिनट के अंदर उन्हें पता पड़ा की फ़ेसबुक ने उनकी वह पोस्ट डिलीट कर दी है क्यों कि वह फ़ोटो नग्नता दर्शाती थी।

काफ़ी बाग़-बखेड़े के बाद फ़ेसबुक ने वह फ़ोटो शेयर करने की अनुमति दे दी, लेकिन यहां सवाल केवल फ़ेसबुक के नियम कायदों का नहीं बल्कि इससे भी बड़ी चीज़ का है:

सवाल ये है कि अगर हमारा इतिहास हमें तकलीफ़ देकर झकझोरने का प्रयास करेगा, तब क्या हम बार बार उसको डिलीट करते रहेंगे? कब तक हम बिल्ली से डरे कबूतर की मानिंद अपनी आँखें बंद करके 'ऑल इज वैल' का जाप करते रहेंगे?


अभी हाल ही में न्यूयॉर्क में एक मुस्लिम समुदाय ने मांग की है कि 9/11 के स्मारक पर लिखे वर्णन में से 'इस्लामी आतंकवाद' में से 'इस्लाम' शब्द हटा दिया जाये। अगर हम इसी तरह अपने इतिहास को सुखद और आरामदायक बनाने के लिये सेंसर करते रहे, तो वो दिन दूर नहीं, जब हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को इतिहास पढ़ाना ही बंद कर देंगे, क्यों कि इतिहास का काम हमें खुश करना नहीं बल्कि बीते समय की बुराईयों और अवसादों की याद दिलाना होता है। जिससे हम आने वाले समय में वही गलतियां वापस ना दोहरा सकें।

ऐसा ही एक सेंसरशिप डिज़्नी की कई पुरानी कार्टून फ़िल्मों में दिखती है। कम ही लोग ये बात जानते हैं कि मिकी माउस और डोनाल्ड डक जैसे किरदार दुनिया को देने वाले वॉल्ट डिज़्नी एक 'रेसिस्ट' यानी जातीवादी थे। पर डिज्‍नी अकेले ऐसे कार्टूनिस्ट नहीं थे, हैना बारबरा और वॉर्नर ब्रदर्ज़ में भी ऐसे निर्माताओं की कमी नहीं थी। इसीलिये उन पुराने कार्टूनों के मूल संस्करणों में आपको उस जातिवाद की झलक साफ़ देखने को मिलेगी।

पर अभी कुछ साल पहले डिज़्नी के अधिकारियों ने अपनी पुरानी कार्टून फ़िल्मों से इन जातीवादी तत्वों को संशोधित करके उनके नये संस्करण बाज़ार में उतार दिये, जिससे नयी पीढ़ी के दर्शकों को उनमें कुछ भी अभद्र या 'ओफ़ेंसिव' ना लगे।

इसके उलट वॉर्नर ब्रदर्ज़ ने अपने कार्टूनों में किसी भी तरह का कोई संशोधन नहीं किया। बल्कि उनके कार्टूनों में शुरु में एक डिस्क्लेमर होता है जो कहता है,
"इन फ़िल्मों में आपको कुछ जातिवादक टिप्पणियां, किरदार या दृश्य दिख सकते हैं जो बीते समय के हमारे समाज में आम बात थी। ये बातें तब भी उतनी ही गलत थीं जितनी कि आज। हालांकि ये सब वॉर्नर ब्रदर्ज़ की धारणाओं को नहीं दर्शाता है, पर हम ये फ़िल्में आपको मूलरूप में ही दिखा रहे हैं, क्यों कि इन्हें बदलना या 'ठीक करना' दर्शायेगा कि ये भेदभाव हमारे समाज में कभी थे ही नहीं।"


हमारी नयी पीढ़ी यूं तो सेंसरशिप के खिलाफ़ बढ़ चढ़ कर बोलने में आगे रहती है, लेकिन किसी भी 'ओफ़ेंसिव' प्रतीत होने वाली चीज़ को बक्से में बंद करके चाबी किसी कुएं में फेंकने के लिये वो हमेशा तैयार रहते हैं। विस्कोंसिन यूनिवर्सिटी के छात्रों ने एक सूची तैयार करी है, जिसमें बताया गया है कि कैंपस में कौन कौन से शब्द बोलने से लोगों को परहेज़ करना चाहिये


जातिवादक, धार्मिक या किसी भी और तरह की अपमानजनक टिप्पणियों की यकीनन एक सभ्य व आदर्श समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिये, पर किसी भी शब्द, फ़िल्म या आर्ट पर बैन लगाना जातिवाद से भी खतरनाक मानसिकता का प्रतीक है। लेकिन जब तक किसी एक के पास दूसरों की बात को सेंसर करने की ताकत है, तब तक ये सब चलता रहेगा।

आपको शायद ये अजीब लगे, लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि आने वाले समय में फेसबुक और ट्विटर सेंसरशिप को एक नयी बंदूक बना चुके होंगे, जो पॉलिटिकल करैक्टनेस नाम के कंधे पर, एक सभ्य और सुरक्षित समाज की दुहाई देकर चलाई जायेगी।


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