पापा तो गाड़ी में ही रह गये थे


मैं उस पिछली रात को सोमा-गोपा के साथ घूम कर वापस आने के बाद हॉल में ही सो गया था। अचानक माँ ने मुझे ज़ोर से हिला कर उठाया। ये काफ़ी अजीब था, कयोँकि माँ कभी भी किसी को इस तरह से नहीं उठाती हैं। मैं अचानक ही उठा और मुझे एहसास हुआ कि सुबह के 8 या 9 बज रहे थे। घर में एक अजीब से भगदड़ मची हुई थी। माँ मुझे उठाकर शायद अन्दर चली गयीं थीं।


मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है। मैं सोच ही रहा था कि सब मुझे उठाकर चले कहाँ गये हैं कि इतने में अन्दर से माँ ने मुझे चीखकर बुलाया। माँ इस तरह कभी किसी को नहीं बुलाती हैं।
मैं तुरंत उठकर अन्दर की तरफ भागा, सभी लोग अन्दर वाले कमरे में जमा थे। दरवाजे से भाभी को मुँह पर हाथ रखे हुए और रोते हुए देख कर ही मुझे समझ में आने लगा कि मामला क्या है।

जैसे ही में कमरे में घुसा, मेरी नज़र पापा पर गयी जो कि बिस्तर पर बेहोश पड़े हुए थे। माँ उनको होश में लाने की कोशिश कर रही थीं, पास ही में वोल्गा दीदी दीवार के सहारे खड़े हुए ये सब देख रहीं थीं, उनके हाथ पैर जाम हुए पड़े थे, जैसे कि हर मुसीबत के वक्त में उनके साथ होता है।

मैं तुरन्त बिस्तर पर पापा के पास पहुँचा और उनके चेहरे को थपथपाकर उन्हें होश में लाने की कोशिश करने लगा। काफी देर तक नाकाम कोशिश करने के बाद, झुँझला कर शायद मैंने उन्हें एक या शायद दो थप्पड़ भी मारे, पर वो भी बेकार रहे। माँ के हाथ में शरबत से भरा हुआ गिलास था। मैनें उसमें से थोड़ा सा पानी पापा को पिलाने की कोशिश की पर ऐसा लगा मानो पानी को किसी छोटे से छेद में डाला हो और छेद के भर जाने पर पानी वापस बाहर आने लगा हो। पापा के शरीर में थोड़ी सी हरकत हुई और तभी मैंने भाभी से पूछा कि भाई कहाँ हैं। मेरे पूछते ही एकाएक भाई कमरे में घुसे और एकबार को तो उनकी हालत भी वोल्गा दीदी जैसी हो गयी। उन्होंने मुझे देखा और हम दोनोँ भाई तुरँत ही पापा को उठा कर गाड़ी मे ले गये। पापा को गाड़ी में रखते हुए सभी लोग हमारा तमाशा देख रहे थे, शायद काफी दिनों से कुछ मज़ेदार देखने को नहीं मिला होगा... मैं इसमें कुछ गलत नहीं मानता, तमाशा देखना सब का हक है।

भाई गाड़ी चला रहे थे और मैं पीछे पापा का हाथ मेरे हाथ मेरे हाथ में पकड़े हुए गाड़ी के फर्श पर बैठा था। मुझे अच्छी तरह याद है कि बीच बीच में उनकी साँस चल रही थी, पर वो न के बराबर थी। मेन रोड पर पहुँचते ही सबसे पहले जो अस्पताल दिखा, भाई ने गाड़ी वहीं लगाई और उतर कर भागते हुए अस्पताल के अन्दर चले गये... मैं पापा के साथ ही था। थोड़ी ही देर में एक आदमी भाई के साथ बाहर आया और गाड़ी के अन्दर पापा की नब्ज़ देखने लगा। नब्ज़ देखने के साथ ही उसकी आँखों में एक ऐसा भाव आया जैसे कि उसने किसी साँप को देख लिया हो, पर तभी उसे याद आया कि मैं उसे लगातार देख रहा था। उसने मुझे देखा और तुरन्त इसी के साथ वो बाहर निकला। मुझे सुनायी दिया कि उसने भाई को किसी और अस्पताल जाने के लिये कहा था, भाई ने उसे पापा को अन्दर ले जाने के लिये बोला पर वो नहीं माना। हम दोनों भाईयों को पता था कि बहस करने से कोई फायदा नहीं था, सो भाई गाडी. में वापस बैठे और पीछे की तरफ गाडी. मोड़ी। गाडी. थोडी. ही आगे पहुँची थी कि पापा का हाथ अचानक ही थोड़ा भारी हो गया। मै भाई पर पूरी ताकत से चीख कर उन्हें और ज़ोर से गाड़ी चलाने को बोला। मुझे पता था कि भाई पहले ही गाड़ी काफी तेज़ चला रहे थे पर मुझे अपना गुस्सा हमेशा भाई पर उतारने की आदत रही है, पापा को ये कभी अच्छा नहीं लगता था।

थोड़ी देर बाद हम एक ओर अस्पताल के सामने थे। यहाँ भी वही सब दोहराया गया। और उन्होंने भी हमें किसी और अस्पताल जाने को कहा। पर इस बार भाई अपने गुस्से में आ चुके थे। और उसी गुस्से की वजह से कुछ ही देर में हम उसी अस्पताल के कम्पाउण्ड में खड़े थे। वैसे तो मैं गाड़ी में ही समझ गया था कि अब अन्दर जाने की कोई ज़रूरत नहीं थी पर भाई के गुस्से के आगे मैं कभी कुछ नहीं कहता, और उस दिन तो कुछ कहना भी नहीं चाहता था।

भाई और अस्पताल का स्टाफ ज़ल्दबाजी में पापा को स्ट्रेचर पर डाल कर ईसीजी के लिये ले भागे जा रहे थे, जबकि मैं आराम से कम्पाउण्ड में रखी हुई कुर्सियों पर जाकर बैठ गया। भाई की गुस्से भरी चीख पुकार जारी थी और मैं आराम से बैठा हुआ चुपचाप वो सब देख रहा था। मेरे पास बैठे हुए एक आदमी ने मुझसे पूछा, "ये इनके(भाई के) पिताजी हैं?" ... और मैं सोचने लगा कि क्या वो सिर्फ भाई के ही पापा हैं?

-- वो मेरे पापा नहीं थे, सामने स्ट्रेचर पर तो सिर्फ उनका शरीर था। मेरे पापा तो गाड़ी में ही रह गये थे।

अस्पताल का स्टाफ और भाई एक अज़ीब सी उधेड़बुन में लगे हुए थे और मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर इसकी ज़रूरत क्या थी? एक लेडी डॉक्टर पापा की ईसीजी रिपोर्ट देखकर भाई के पास जा कर उन्हें कुछ समझाने लगी। मैं अभी भी दूर से ये सब देख रहा था। भाई की चीख-पुकार अब बन्द हो चुकी थी और वो किसी बच्चे की तरह उस डॉक्टर से लिपट कर रो रहे थे। एक तरफ भाई किसी बच्चे की तरह रो रहे थे और इधर मेरी आँख से एक आँसू भी नहीं फूट रहा था। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि ज़्यादा अज़ीब क्या था... - भाई का किसी बच्चे की तरह रोना या मेरे आँसू न आना। मैं किसी नतीज़े पर नहीं पहुँच पाया, तो उठकर भाई के पास पहुँच गया।

भाई ने कहा, "पापा को घर ले कर चलते हैं।"
मैंने कहा, "किसलिए? घर ले जाना ज़रूरी है?"
... भाई ने अपने आँसूँ पोछे और कहा, "हाँ।"

हम वापस से गाड़ी में बैठे थे, पर इस बार गाड़ी तेजी से नहीं चल रही थी, बल्कि मुझे लग रहा था कि भाई इतना धीरे चला रहे थे जैसे कि वो घर ही न पहुँचना चाहते हों।

धीमे ही सही, हम घर पहुँच गये। घर के नीचे गाड़ी रुकी और भाई उतर कर ऊपर चले गये। उनके जाने के बाद भाभी नीचे आयीं। उन्होंने गाड़ी का पीछे का दरवाजा खोला और वहाँ मैं पापा के साथ बैठा हुआ था। तभी घर में से माँ के रोने की आवाज आयी और भाभी पापा कि तरफ देखते हुए वापस घर में चली गयीं।

तभी दूसरी तरफ का दरवाजा खुला और सामने पड़ोस के गैराज वाले सरदार अँकल खड़े हुए मुझे और पापा को देख रहे थे। मुझे किसी के देखने से फर्क नहीं पड़ रहा था, मैं पापा के बालों में हाथ फेर रहा था, जैसे वो मेरे बालों मे फेरा करते थे।
सरदार अँकल ने दरवाजा बँद कर दिया... अब तमाशे में शायद कोई मजा नहीं रह गया था।

अब गाड़ी में बस मैं था और मेरे पापा.... और वो हमेशा की तरह किसी हीरो की जैसे खूबसूरत दिख रहे थे।

टिप्पणियाँ

  1. उफ्फ! क्या कहें..आँखे नम हो गई..अति मार्मिक!

    पिता जी को श्रृद्धांजलि!!

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  2. Kuchh keh paana asambhav hai bhai...bus ye kahunga ki ek marmik vedna dil ko cheerti huyi nikal gayi...

    Ishvar unki aatma ko shanti de...tumhari kalam ko aisi adbhut shakti pehle hi mili huyi hai...tumhare liye kya duaa karein...

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  3. कई दिनों बाद जाकर आज पढ़ा, जैसे की तू मेरी डरपोक फितरत से वाकिफ है शीर्षक देख के पढने की हिम्मत नही हुई... अब पढ़ लिया है तो क्या कहू..? कुछ कहने की हिम्मत नहीं हो रही..

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